अंग्रेज़ो से आज़ादी के पहले का भारत ! | क्या देशी राज्यों के लोग भी गुलाम थे या वे स्वतन्त्र थे ?
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- Rajeev Sharma
- 21/08/2022
- History incredible India Politics
अंग्रेज़ो से आज़ादी के पहले का भारत !
क्या देशी राज्यों के लोग भी गुलाम थे या वे स्वतन्त्र थे ?
आज भी यह विचारणीय विषय है जिस पर आज 75 वर्ष बाद भी विचार करने की जरूरत है !
15 अगस्त को स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर सभी को बधाईयां।
15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेज़ो ने भारत को स्वतंत्र किया तब भारत दो भागो में बंटा हुवा था।
एक भाग जो अंग्रेज़ी सरकार के अधीन था वह जो 53 प्रतिशत था ओर दुसरा भाग वह जो राजाओं के अधीन था जो भारत के सम्पूर्ण भाग का 47 प्रतिशत था तथा जिसका क्षेत्रफल 5,87,949 वर्ग मिल में फैला था।
जण संख्या के दृष्टि से भी इन रियासतों का योगदान कम महतवपूर्ण नहीं था । विभाजन के बाद भारत अधिराज्य की जनसंख्या 31 करोड़ 90 लाख थी ( 1941 की जणगणना के अनुसार ) जिसमें 8 करोड़ 90 लाख लोग इन रियासतों में रहते थे । एक प्रकार से उस समय 28 प्रतिशत जनसंख्या रियासतों में निवास करती थी ।
क्षेत्रफल के हिसाब से जम्मू – कश्मीर का राज्य सबसे बड़ा था 84, 471 वर्ग मील , हैदराबाद 82,313 वर्ग मील अौर तीसरे स्थान पर मारवाड़ रियासत थी जिसका क्षेत्रफल 36100 वर्गमील था। उस समय दस हज़ार वर्ग मील क्षेत्र से बड़ी 15 रियासतें थी, एक हज़ार से दस हज़ार वर्गमील क्षेत्र के मध्य वाली 67 रियासतें थीं तथा एक हज़ार वर्गमील से कम की 202 रियासतें थी ।
26 जनवरी 1950 तक अर्थात गणतंत्र भारत के जन्म तक 554 रियासतें भारत में मिल चुकी थी।
हमारे देश की स्वतंत्रता से पूर्व अन्तराष्ट्रीय क़ानून के तहत भारत के सभी देशी रजवाड़ों को 3 जून 1947 के दिन ब्रिटिश हुकूमत के साथ जो उनकी मैत्री तथा व्यापारिक सन्धिया थी वे ख़त्म हो गयी अब वे पूरी तरह से बाहरी रूप से स्वतंत्रत थे तथा ये सभी राज्य पहले भी आंतरिक रूप से स्वतंत्र ही थे केवल मैत्री और व्यापारिक सन्धि के कारण बाहरी संप्रभुता को ब्रिटिश सरकार के साथ हुई सन्धि के तहत कई शर्तो से एक दूसरे के साथ जुड़े थे । एक प्रकार से वे उनके मातहत नही होकर मित्र थे । यही स्थिति राजपुताना की अधिकतर रियासतों की मुगल काल में रही थी ।
ब्रिटिश सरकार के श्वेतपत्र के मुताबिक़ भारत का एक भाग जो उनके अधीन था वह कोंग्रेस के नेताओ को 15 अगस्त 1947 को सौंप दिया गया तथा रियासतों को पूर्व में ही उनकी सन्धियों से मुक्त करके स्वतंत्र कर दिया था। वे अब स्वतंत्र राष्ट्र थे ।
उस समय भारत वर्ष को अखण्ड बनाये रखने के लियें इन सभी रियासतों के साथ भारत सरकार ने एक सन्धि की जिसे संविलयन प्रालेखों ( इंस्ट्रुमेंटस ओफ एक्शेसन ) के तहत ये रियासतें भारत के साथ रहीं । इसके बाद संविलयन अनुबन्धों या प्रसंविदाओ ( मर्जर एगरिमेंट्स अौर कोवनेंट्स) पर हस्ताक्षर हुए । इन दोनो सन्धियों से 554 रियासतों को भारत से जोड़ा गया था ।
इन सन्धियों के तहत रियासतों ने तीन अधिकार भारत सरकार को सौंपे गये थे – प्रति रक्षा , परराष्ट्र सम्बंध , संचार – अधिराज्य सरकार को सौंपे इन अधिकारों के अलावा शेष विषयों में उनकी प्रभुता स्वतंत्र रही । यही संधियां पहले अंग्रेजी के साथ थी जो अब भारत सरकार के साथ की थी तथा अखंड भारत को बनाए रखने में सहायक बने ये सभी राज्य ।
संविलयन अनुबंधों और प्रसंविदाओ के अन्तर्गत भारतीय नरेशों को यह वचन दिया गया था की उनके व्यक्तिगत अधिकार एवं विशेषाधिकार यथावत रहेंगे तथा प्रीवी पर्स चालू रहेंगे ।
प्रीवी पर्स के तहत राजाओं को उनकी रियासतो के वार्षिक ओसत राजस्व के प्रतिशत के आधार पर देना तय किया गया था। सबसे अधिक मैसुर रियासत को 26 लाख और मारवाड़ को 17 लाख 50 हज़ार तथा सबसे कम 192 रुपए वार्षिक सौराष्ट्र स्थित कटौदिया के शासक को मिलती थी । ये रक़म ना बढ़ाई ओर ना घटाई जा सकती थी । तत्कालीन राजाओं को जीवन पर्यन्त प्राप्त होती रहेगी तथा इसे आय कर से मुक्त रखा गया था । इसमें यह शर्त जोड़ दी गयी थी की तत्कालीन शासक के उतराधिकारी को जारी रखने का निर्णय भारत सरकार बाद में अवसर आने पर निर्णय करेगी।
1950 में प्रीवी पर्सो के रूप में दी जाने वाली धनराशि का योग लगभग 5.8 करोड़ था । उस समय भारत सरकार 279 शासकों को 4,81,59,714 रुपये देती थी । इसके विपरीत शासकों से प्राप्त धनराशि इतनी थी की उसके ब्याज से ही प्रीवी पर्स दिया जा सकता था ।
सविंधान सभा की बहस , खण्ड 10 , अंक 5, पृष्ठ 165-68 ; भारतीय रियासतों पर स्वेत पत्र में पन्मुद्रित पृष्ठ 120-25 के अनुसार -“ …..अब इन समझौतो के दूसरे भाग को पूरा करना हमारा कर्तव्य है अथार्त इस ओर से आस्वस्त होना की प्रीवी पर्स सम्बन्धी दी गई हमारी गारण्टी सच्ची उतरे। इस सम्बन्ध में असफल होना एक विश्वासघात होगा और नई व्यवस्था के सुस्थिरीकरण को काफ़ी आघात पहुँचाएगा ।”
आगे चलकर इसी कोंग्रेस ने अपने वचन को तोड़ के विश्वासघात करके संसद में क़ानून बना कर प्रीवी पर्स समाप्त कर दिए ।
सार्वजनिक अन्तराष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत, जो कि भारत के साँविधानिक क़ानून या देश – विधि से भिन्न हैं , भारत सरकार अपनी गारण्टियों को पूरा करने , शासकों को प्रीवी पर्स देने तथा उनके व्यक्तिगत अधिकारो एवं विशेषाधिकारो को मान्यता देने के लिये बाध्य हैं ।
अन्तराष्ट्रीय क़ानून के लिए तो निर्णायक तथ्य यह हैं कि 15 अगस्त 1947 को जिस दिन ‘ भारतीय स्वाधीनता अधिनियम , 1947 लागु हुवा , भारतीय रियासतें अंग्रेज़ी प्रभुता से मुक्त हो कर स्वतंत्र एवं सम्पूर्ण – प्रभुत्व – सम्पन्न हो गई ।
इस तथ्य को कि 15 अगस्त 1947 के दिन भारतीय रियासतें पूर्णतः स्वतंत्र एवं सम्पूर्ण – प्रभुत्व सम्पन्न थी , सर्वोच्च अधिकारियों ने भी इसे स्वीकार किया था । कुछ महत्वपूर्ण उदबोधंन इस प्रकार हैं –
• ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में भेजे गए मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल का 12 मई 1946 को घोषित ज्ञापन –
“ इंग्लेंड के बादशाह से समझौता होने के फलस्वरूप भारतीय रियासतों को जो अधिकार मिले थे , अब वे समाप्त हो जायेंगे तथा भारतीय रियासतों ने जो अपने अधिकार सार्वभौम सत्ता को समर्पित कर दिए थे , अब वे उनको वापस मिल जायेंगे । इस प्रकार इंग्लेंड के बादशाह एवं ब्रिटिश भारत के साथ चल रहे भारतीय रियासतों के राजनीतिक सम्बंध समाप्त हो जाएँगे ।
इस शून्य को भरने के लिये भारतीय रियासतों को ब्रिटिश भारत की उतराधिकारी सरकार या सरकारों से संघीय सम्बंध स्थापित करने होंगे या उनके साथ विशिष्ट राजनीतिक सम्बंध स्थापित करने होंगे ।”
इसी शिष्टमंडल ने 16 मई 1946 को कहा था –
“ सार्वभौम सत्ता न तो इंग्लेंड के बादशाह के पास ही रह सकती हैं अौर न नयी सरकार को अंतरित की जा सकती हैं ।”
25 जुलाई 1947 को भारत के तत्कालीन वायसराय लोर्ड माउण्टबेटन ने शासक मंडल में यह कहा था –
“ सार्वभौम सत्ता के हटने से रियासतें सम्पूर्ण – प्रभुत्व सम्पन्न हो जाएँगी…भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के लागु होने से रियासतें इंग्लेंड के बादशाह के प्रभुत्व से मुक्त हो जाएँगी । रियासतों को पूरी स्वाधीनता हैं – तकनीकी एवं क़ानूनी दृष्टि से वे पूर्णतः स्वतंत्र हैं ।”
5 जुलाई 1947 को सरदार वल्लभभाई पटेल ने कहा था – “ इस मूल सिद्धांत को रियासतों ने पहले ही स्वीकार कर लिया हैं कि प्रतिरक्षा , परराष्ट्र सम्बंध तथा संचार की दृष्टि से वे भारतीय संघ में मिल जाएँगी । इन तीन विषयों के अतिरिक्त , जिनमे कि देश का सार्वहित निहित हैं , किसी अन्य विषय में हम उनसे समर्पण भी नहीं चाहते । दूसरे विषयों में हम उनके स्वतंत्र अस्तित्व का पूरी तरह सम्मान करेंगे ।”
सम्मान तो तब होगा जब सरदार वल्लभभाई पटेल के स्टैचू ओफ लिबर्टी में भारत के रजवाड़ों का संग्रहालय बनाया जाएँगा , जिसके संकेत देश के प्रधानमंत्रीजी श्री मोदीजी ने स्वयं अपने भाषण में दिए हैं।
15 अगस्त 1947 से पहले भारतीय संघ में मिलते समय भारतीय राजाओं ने सविलयन प्रालेख में हस्ताक्षर किए वहाँ यह लिखा था -“ इस प्रालेख में ऐसी कोई चीज़ नहीं हैं जिससे इस रियासत पर मेरी प्रभूता में किसी प्रकार का अन्तर पड़े । इस रियासत के शासक के रूप में जो सत्ता एवं अधिकार इस समय मुज़े प्राप्त हैं , वह इस प्रालेख पर हस्ताक्षर करने के बाद भी यथावत रहेगा ।”
ऊपर लिखे उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता हैं की किस प्रकार भारतीय राजाओं ने भारत देश कि एकता व अखंडता में अपना योगदान दिया । उन्होंने अपना सब कुछ गौरवशाली इतिहास परम्पराएँ अपने राष्ट्र भारत देश को एक करने के लिए त्याग कर दी । जबकि वे एक स्वतंत्र इकाई बनकर भी रह सकते थे ।
भले ही इसके पीछे अनेक कारण रहे हो लेकिन आज जो नई पीढ़ी हैं उसको यही सिखाया जाता हैं की आज़ादी व देश के एकीकरण में उनका (रियासतों) कोई योगदान नहीं था । यह उन सब राजाओं के प्रति विश्वासघात नहीं तो क्या हैं ?
1964 में गुजरात प्रदेश विरूद्ध वोरा फिद्दली तथा अन्य “ एक मुक़दमा हुवा जिस पर सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों ने रियासतों को अन्तराष्ट्रीय क़ानून के तहत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्म्पन रियासत माना था “
यह कैसे सम्भव है कि भारत सरकार संविलयन का लाभ तो उठाती रहे और अपनी जिम्मेदारी से मुकर जाए ? प्रीवी पर्स देने एवं विशेषधिकारो के सम्बंध में भारत सरकार की एकतरफ़ा अस्वीकृति अन्तराष्ट्रीय क़ानून की दृष्टि में अपनी प्रतिज्ञा का निंदित उल्लंघन हैं ।
समग्र रूप से यही तथ्य प्रकट होते है की 15 अगस्त को भारत का 53 प्रतिशत भाग जो अंग्रेजी सरकार के सीधे अधीन था वह स्वतंत्र हुआ था और वह 47 प्रतिशत भाग जो राजाओं के अधीन था वह तो पहले से ही स्वतंत्र था क्योंकि वह कभी किसी का गुलाम तो रहा ही नहीं था उसने तो केवल राजशाही से लोकशाही को अपनाया था । अंग्रेजी संधियां मैत्री और व्यापारिक संधियां थी तब गुलामी कैसे हो गई ।
भारत सरकार ने ऐसा करके अन्तराष्ट्रीय प्रतिज्ञाओं का मूल्य काग़ज़ के टुकड़ों से अधिक नहीं माना । अब इसे क्या कहा जाये यह तो जनता को निर्णय करना हैं कल ये चुने हुए प्रतिनिधि चन्द लाभ के लिये कुछ ऐसा कर जाए जो सदियों तक हमारे माथे पर कलंक बन जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । क्योंकि ऐसा करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं हैं जो श्री नेहरुजी ओर श्री सरदार पटेल के वचन भंग कर सकते हैं वे ओर भी कुछ अनहोनी कर जाये इसमें कोई मीन मेख दिखाई नहीं देती ।
डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर
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